Tuesday, September 28, 2010

"आधा बिस्वा"

राम रहीम में अंतर नाही रटने वाले देश में आज फैसला राम और रहीम के बीच ही होना है. धर्म और आस्था के ज्वार के बीच कानून बताएगा, कि मिलकियत का मालिक कौन है??
जी, फैसला है लखनऊ में...अयोध्या के ढांचे का..कि ये मंदिर था या मस्जिद है....साठ साल की हो गई है ये कानूनी जंग....
हम बतायेगे एक एक हिज्जा इस मुकदमे का....फैसले से पहले....

मुद्दा जो बना मुकदमा..............
२२-२३ दिसंबर १९४९.... रामलला की मूर्तियाँ आगन से छत के नीचे जा पहुंची.....छत से पटा ये कमरा था 'बाबरी मस्जिद' ...बस यहीं से शुरू हुआ झगडा मंदिर-मस्जिद का...मुद्दा था कि आखिर मूर्तियाँ राम चबूतरे से मस्जिद में पहुंची कैसे??? और यही मुद्दा बन गया मुकदमा!!


मुकदमे के सवाल.....
शुरूआती मुद्दा सिर्फ ये था कि मूर्तियाँ मस्जिद के आँगन में पहले से बने राम चबूतरे पर वापस जाएँ या फिर उनकी पूजा वहीँ अन्दर ही चलती रहे.
साठ साल में दर्जनों सवाल कोर्ट के सामने आ गए जिनका जबाब फैसले में मिलना हाई.........
१. मोटे तौर पर कोर्ट को तय करना हाई..क्या विवादित जगह पर कोई मस्जिद थी, कब बनी और क्या उसे बाबर या मीर बाकी ने बनवाया?
२. क्या विवादित जगह रामलला का जन्म स्थान हाई और यहाँ मंदिर को तोड़कर मस्जिद बने गई?
३. तकनीकी तौर पर बड़ा सवाल है..क्या मुकदमा करने वालों को इसका वाजिव हक भी है?

सवा सौ साल का फैसला....
झगडा अंग्रेजों के जमाने से भी जुदा है....1885-86 में अंगरेजी अदालत ने फैसला दिया था....मुक़दमा ठोका था निर्मोही अखाड़े ने....अखाड़े ने बाबरी से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था.....अदालत ने इसे ख़ारिज कर दिया....अदालत ने कहा कि मंदिर बनाने से साम्प्रदायिक खून खराबा हो सकता है...
अदालत के मुताबिक मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाना दुर्भायपूर्ण है लेकिन ....साढे तीन सौ साल पुरानी गलती ठीक नहीं हो सकती!!

लखनऊ में हाई कोर्ट को ये भी तय करना है कि सवा सौ साल पुराना फैसला लागू है या नहीं???


साठ साल-पांच मुकदमे-३० मुद्दई......

अदालत के सामने मालिकाना हक के लिए पांच मुकदमे दायर हुए.....एक मुक़दमा वापस हो गया...अब चार मुकदमे फैसले का इंतजार कर रहे हैं........
चार मुकदमों को ३० मुद्दई लड़ रहे हैं...
मुकादमा नंबर-१: २३ दिसंबर 1949 को फैजाबाद जिला प्रशासन ने किया..
मुक़दमा नंबर- २: 16 जनवरी 1950 को हिन्दू महासभा के नेता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में अर्जी लगाइ और मूर्तियों को न हटाने व पूजा की मांग की.

मुक़दमा नंबर-३: 1950 में ही दिगंबर अखाडा के रामचंद्र परमहंस दास ने दायर किया, 1989 में उसे वापस ले लिया.

मुकादम नंबर-४: 1961-62 के दौरान सुन्नी वक्फ बोर्ड और स्थानीय मुसलमानों ने मिलकर दायर किया और मस्जिद का कब्ज़ा माँगा.

मुकदमा नंबर-५: 1989 में रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने दायर किया....रामलला को इस जमीन और ईमारत का जायज मालिक बताया.

गवाह-सुबूत……………..
अपने दावे के पक्ष में हिंदुओं ने 54 और मुस्लिम पक्ष ने 34 गवाह पेश किए. इनमे धार्मिक विद्वान, इतिहासकार और पुरातत्व जानकार शामिल हैं.
मुस्लिम पक्ष ने अपने समर्थन में 12 हिंदुओं को भी गवाह के तौर पर पेश किया. दोनों पक्षों ने लगभग 15 हज़ार पेज दस्तावेज़ी सबूत पेश किए. कई पुस्तकें भी अदालत में पेश की गईं.


बाबरी के दावे........
१. मुस्लिम पक्ष के मुताबिक निर्मोही अखाडा ने 1885 में सिर्फ रामचबूतरे पर दावा किया था...अब वो पलट रहा है.
२. मुस्लिम पक्ष रामचबूतरे और अयोध्या को रामलला के जन्मस्थल के रूप में स्वीकार करता है.....
३. लेकिन विवादित स्थल पर मस्जिद को ही स्वीकार करता है..
४. बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर बनाइ गई..न कि किसी ईमारत को तोड़कर.

मंदिर के दावे....
१. बादशाह बाबर ने पुराना राम मंदिर तोडा और वहां मस्जिद बना दी...जिसे बाबरी मस्जिद कहा गया.
२. पुरातात्विक सबूतों को आधार बनाया गया
३. हाई कोर्ट के आदेश पर हुई खुदाई में मंदिर के अवशेष मिलने का दावा.

मंदिर आन्दोलन:
- 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने VHP और RSS के साथ मिलकर विवादित ईमारत का ताला खुलवाने का आन्दोलन छेड़ा....
-इसने देश की राजनीति और अयोध्या मुद्दे की दिशा ही बदल दी.
-राम शिलाओं का पूजन करवाया गया.
-बाद में इस आन्दोलन के कमान BJP नेता लाल कृष्ण अडवानी के कब्ज़ा ली.
-1986 में एक स्थानीय वकील की अर्जी पर फैजावाद के डीएम ने विवादित ईमारत का ताला खुलवा दिया.
-इससे नाराज़ मुसलमानों ने बाबरी एक्शन कमिटी बना ली.
-1989 में VHP ने मंदिर बनाने का अभियान उग्र कर दिया और विवादित स्थल के करीब मंदिर की नीव रखी.
-1990 में VHP कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद को कुछ नुक्सान पहुचाया.
-1992 में ६ दिसंबर को VHP, BJP और शिवसेना की भीड़ बाबरी मस्जिद को तोड़ डाला.
- 1998 में मतों का ध्रुवीकरण हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी ने BJP की गठबंधन सरकार दिल्ली में बनाई..

'बात' से नहीं बनी "बात" .......
तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से लेकर कांची के शंकराचार्य और जस्टिस पलोक चटर्जी ने मुद्दे को कोर्ट के बहार बातचीत करके सुलझाने की कोशिश की लेकिन बात बन नहीं पाई.


मालिक को मिलेगी आधा विस्वा जमीन.......

जस्टिस एस यू खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में सुनवाई पूरी कर ली है....अब फैसले की घडी आ चुकी है......
इन साठ सालों में दावेदार बढ़ते गए और जमीन घटती गई.....आप जानेंगे तो चौंक उठेंगे...... सौ एकड़ के तेईस प्लॉटों से घटते घटते सिर्फ 1250 वर्ग फीट जमीन बची है यानि आधे विस्वा से भी कम. ......

मुद्दे की बात

राम-रहीम, रटते हैं हम
अरदास-प्रार्थना, करते हैं हम
मंदिर-मस्जिद में बंटते नहीं हम
एक ईमान, एक मकसद हैं हम
अहले वतन के आशिक हैं हम
मिटटी की सौगंध खाते हैं हम
न बटेंगे, न लड़ेंगे, न भड़केंगे हम
वायदा ये करते हैं हम
फैसला चाहे जो भी हो.......
हिंद हैं हम भारत हैं हम
हिंद ही रहेंगे हम.

Wednesday, August 4, 2010

शून्य में अस्तित्व

अणु का शून्य में विलयन"..............

मन को भ्रमित करता है

आकृति में कटाव करता है

'काल' की उपस्थिति दर्ज करता है

अस्तित्व मेटने का दावा करता है.

उस "घोल" में डुबकी से इनकार करता है.........

वो 'उस मिलन' से दूर भागता है.

"काल" के इस षणयंत्र को तोड़ सच का संज्ञान

शून्य में समा जाना ही है अस्तित्व की पहचान!!

Monday, July 26, 2010

गुदगुदाता रहश्य........."THE MYSTERY OF THE PINE COTTAGE"


मैं बातें करना नहीं भूला....हाँ आप लोगों से अपनी बाते बाँट नहीं पाया....या फिर यूँ कहूँ कि कोशिश करता रहा वो भी दिखावे के लिए. अब माफ़ी मांगू तो, वो भी अन्याय होगा, आप सभी के साथ.....अब मैं जैसा हूँ सभी कमियों के साथ मुझे आप सबके बीच चहकने का मौका दीजिये....कोशिश करूँगा... ओये फिर वही शब्द!! अब इससे पीछा नहीं छूट सकता.....क्योंकि "कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती".... हाँ सच है...एकदम निखालिस..........डॉ. संतोष मैगजीन ने कभी न हारने का जैसे ठेका ही ले लिया है.....पेशे से कालेज में मास्टरी करती हैं...soorryyyyy अब प्रिंसिपली भी करने लगी हैं...लेकिन घर पर एकदम उल्टा काम करती हैं सालों से....जी साब.... वो लिखती हैं...उपन्यास!! बेस्ट सेलर बनाने के लिए नहीं बल्कि बेस्ट रीडर पैदा करने के लिए.... एक बात और वो हमारी गुरु हैं...ये बात अलग है कि हम आज तक उनकी क्लास में पढ़ने नहीं गए. खैर डॉ. संतोष मैगजीन की नई किताब आई है....बाज़ार में भी उतर चुकी है...आज बात उसी पर करेंगे...अपनी गुरु की उपन्यास है...जमकर करेंगे चीर फाड़...तो लीजिये अब हम भी हाज़िर हैं नए 'लुक' में.....कृपया हमें साहित्य समीक्षक की तरह सुना-समझा जाए...हहहहहहहाहा.......!!!!


आजकल कोई मुस्कराता क्यों नहीं...बुझे से...बोझिल से चेहरों से भरी सड़क-बाज़ार-स्कूल-कालेज-घर....उहूँ.....अरे भाई हँसाना सीखिए. पढ़िए....."THE MYSTERY OF THE PINE COTTAGE" .....सबसे बड़ा मजाक तो यही है.....रहस्य में भी हंसी खोजने चले है.....संतोष मैगजीन भी हद ही करती हैं....खुद हमेशा 'बबली-डबली' की तरह हंसती-मुस्कराती हैं और कभी कभी तो अचानक 'चीख चिल्लाहट टाइप' हंस देती हैं.....उनके स्वाभाव का यही चरित उनकी उपन्यासों में भी मिलता है...... "रहस्य" पर उपन्यासों की श्रंखला लिख रही हैं....."THE MYSTERY OF THE PINE COTTAGE" इस कड़ी में तीसरी है. ये एसा रहस्य है जो आपको डराता नहीं बल्कि रोमांचित करता है...और आप पढ़ते-पढ़ते इस कदर खो जाते हैं कि कब आनंद से सराबोर हो जाएँ पता ही नहीं चलता. उपन्यास के पात्र भूतिया नहीं हैं ('चंद्रकांता' के क्रूरसिंह या विषकन्या टाइप तो कतई नहीं)....इन पात्रों में आप खुद को भी शामिल कर लेंगे.


....."THE MYSTERY OF THE PINE COTTAGE" एक शैपैन की बोतल की तरह खुलती है.....वो इसलिए कि, लेखिका पढ़ने की आदत डालना चाहती है....खासतौर पर बच्चों और युवाओं में. सच मानिये तो प्रोढ़ और बुजुर्ग भी अगर इस उपन्यास को पढ़े तो मस्ती से पढ़ जायेंगे. खास बात ये कि इन उपन्यासों में अंग्रेजी साहित्य की हर विधा....अलंकार का उपयोग किया गया है....ये साहित्यिक स्वाद देना आजकल के लेखकों ने भुला ही दिया है. मैंने कई बार ये जानने की कोशिश कि तो पता चला कि लेखक और प्रकाशकों ने ये तय कर लिया कि आज कल लोगो को "LEISURE READING" की आदत है न कि साहत्यिक की!! पर संतोष मैगजीन इसे लौटा लाइ हैं....नयी-नयी 'फ्रेसेस' बनाती हैं...भाषा पर पकड़ है और इतनी सरस कि पढ़ते समय कोई तकलीफ नहीं होगी....साहित्य के प्रति अबूझ से भय को मन से निकालिए और ....."THE MYSTERY OF THE PINE COTTAGE" पढ़ डालिए......

हाँ........"THE MYSTERY OF THE PINE COTTAGE" के प्रीफेस में लिखी कविता की कुछ पंक्तिया मैं यहाँ कोट करना नहीं भूलना चाहता.........

“Books can transport you to Lewis Carroll’s Wonderland.
And make you travel with Gulliver to Lilliputland.
With Stevenson you can hunt for treasure.
In Treasure Island which will be a great pleasure."

Wednesday, March 31, 2010

अब पढ़ना होगा......!!!!

(जैसे आप रोटी खाते हैं......बोलने की आज़ादी रखते हैं........अब पढ़ना भी पढ़ेगा.....ये कानून लागू हो रहा है....आज से. बस सोचा तो..कुछ कह बैठा.... )

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आज हमारी खबर बड़ी है....................
मात्रा और आखर में जंग छिड़ी है
आगे दौड़ने की होड़ मची है
मंजिल से मिलने की ललक चढ़ी है.

आज हमारी बात बड़ी है...............
जल-नभ-थल में खोज चली है
शहर-गाँव की खाई भरी है
कौन अपढ़ ये तलाश हुई है.

आज हमारी लड़ाई बड़ी है............
हक पहुचाने की राह खुली है
कौन पढ़े..ये सवाल नहीं है
सभी पढ़ें- बस कानून यही है!!!!!!!!!!

Tuesday, March 23, 2010

बलात्कार.....एक छोटी सी बात!!!

बलात्कार....खूब करो....जब चाहे...तब करो....टेन्सन की कोई जरुरत नहीं. कानून क्या कर लेगा??
पहली लाइन पढ़कर ही आपने गलियाँ देना शुरू कर दिया होगा....कुछ ने तो मेरे चित्र पर जूते मार भी दिए होंगे........महिलाओं के हक-हकुकों के स्यंभू ठेकेदार NGO वाले तो चल पड़े होंगे मेरे खिलाफ 376 का मुक़दमा दर्ज करने..........!!!
प्लीज़ रुकिए...में बलात्कारी नहीं हूँ और न ही बलात्कार का प्रचारक....माफ़ कर दीजिये मुझे.. मैं तो आपको सच की बदसूरत तस्वीर दिखाने लगा हूँ!!
जी साब...मेरी बात मानिये.... बात तो सुन लीजिये प्लीज़!!!!!!!!!!!!!
गलती मेरी नहीं है आजकल ये चल निकला है.....बलात्कार करना कोई कठिन काम नहीं रहा....अभी बलात्कार करो....कुछ घंटों बाद मुक्त....छोटी सी कीमत चुका दो...बस!!
वाकई में यही हुआ. कल में दफ्तर में बैठा था...मेरे साथी अगले दिन की खबरों की प्लानिंग में जुटे थे.....तभी आधी रात को एक खबर आई...नबाबों के शहर रामपुर से. (इसे अब जयप्रदा-अमर सिंह-आज़म खान के नाम से भी जाना जाता है).....रिपोर्टर बोला...नाबालिग के साथ बलात्कार हुआ..पंचायत ने लड़की के घरवालों को तीस हज़ार रुपये दिलवाकर इस बात को भूल जाने के लिए कह दिया. पुलिस में कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाएगी.
खबर तो क्या....लगा कि जैसे बाईबल से कोई सेटन के स्पीच सुना रहा हो! काम ख़त्म करके घर जाने से पहले दिमाग का कचरा हो गया.....
बरिष्ठ सहकर्मी रुपेश श्रोती मेरे पास आये और खबर पटक कर बोले कि खबर बड़ी है.....इसकी 'पंच-लाइन' लिख दो.....आप लिखोगे तो सुबह की मीटिंग में खबर को हाथों-हाथ उठा लेंगे.
मूड उखड़ा हुआ था....मन उद्वेलित था....लेकिन क्या करता...जिस धंधे में हूँ...उसमे भावनाओं का कोई अर्थ नहीं....काम तो करना ही है सो, कीबोर्ड पर उंगलियाँ चलने लगी...अनमनी सी...पाँच पंक्तियाँ लिखी:
" बलात्कार का खुला है बाज़ार
पंच बन गए हैं दलाल
बम्पर ऑफर है इस बार
बलात्कार करो...तीस हज़ार दो
बलात्कार करो...सिर्फ पांच जूते लो"
एक महिला की इज्जत की कोई कीमत नहीं...ये जुमला हम सुनते आये हैं लेकिन 'पंच परमेश्वरों' ने हालत बदल दिए हैं....उन्होंने महिला की इज्जत की 'कम' ही सही पर कुछ 'कीमत' तो तय कर ही दी. अब वो गरीब नाबालिग लड़की...उसके माँ-बाप नहीं हैं...चाचा के साथ रहती है. वो क्या करे जवान होने लगी...तो अनाथ लड़की कैसे बचे मर्दों की मर्दानिगी से...सो तीन दिन पहले उसके साथ बलात्कार कर दिया गया...अब बेचारी रोये कैसे...और किससे मांगे न्याय?? गाँव में पचायत लग गई...बड़ी बात तो ये कि पंचों को पीडिता ने नहीं बल्कि "उस मर्द" ने बुलाया....फैसला कर दिया पंचों ने...अनाथ-गरीब को ३० हज़ार देने का एलान कर दिया गया. पुलिस में जाने की मनाही कर दी गई.
ये कोई नई बात नहीं है जो मैं आपको बता रहा हूँ. महज़ छह दिन पहले गाजिआबाद में पंचायत-वादियों ने यही किया.....एक 'मर्द' ने लड़की की इज्जत लूटी और पहुँच गया पंचों की शरण में...पंचायत के मर्दों ने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया और "मर्द" को पांच जूते की सजा देकर छोड़ दिया गया...लड़की को न्याय मिल गया???????? पंचायती-मर्द मूछों पर ताव देकर निकल लिए.
ऐसे सैकड़ों केस होते हैं हिंदुस्तान में जहाँ बलात्कारी को अगला बलात्कार करने के लिए छोड़ दिया जाता है......
पंचायतों ने दलाली की एजेंसी खोल ली है......बलात्कारी को बचाने के लिए वो कुछ भी कर लेते हैं..... अब बताइए कि मैं कहाँ गलत था....क्या अब भी आप मुझे गरियायेंगे या फिर कुछ शर्म-हया खोजने निकलेंगे...............................!!

Saturday, March 6, 2010

इस बच्चन 'भाई' से डरना जरुरी है...........!!!

अमिताभ बच्चन कभी गरियाते थे....अब डरा रहे हैं.....सीधे सीधे कहूँ तो औकात बता रहे हैं....वो भी उसको, जिसकी वाकई बाज़ार में कोई हैसियत है. देश के सबसे बड़े मीडिया समूह के मालिकों की हैसियत नाप कर रख दी...."बच्चन घराने" के मालिक बच्चन साहब ने. उनको धमका दिया सरे बाज़ार....”या तो सार्वजानिक रूप से माफ़ी मागो नहीं तो...............................!!” है न अपने महानायक में दम!
इस मीडिया समूह के मालिक की गलती सिर्फ इतनी सी थी कि उनके स्वामित्व वाले अखवार ने खबर लिख दी कि बच्चन घराने को वारिस मिलने में वक्त लग सकता है क्योकिं घराने की 'इंटरनेशनल बहूजी' को पेट की टीबी होने की खबर है. और इन हालातों में बहुजी फ़िलहाल देश को कोई खुशखबरी देने में असमर्थ हैं.

बस बच्चन साहब हो गए गर्म....खुद भी गर्म...उनके घराने के 'छोटे भैया' भी गर्म और छोटे भैया का 'भानुमती कुनवा' तो गर्मी से उबलने लगा. लोकशाही के चौथे खम्भे में दोलन होने लगा.....लगा कि भूचाल न आ जाए...कई अखबार, मैगजीन और एक अंग्रेजी चैनल चलने वाले मालिकों का कलेजा मुहु को आ गया....

चलो बात को और खोल देते हैं.....ये समूह है "Times of India" और इसके अखबार "Mumbai Mirror" ने छापी थी खबर. रिपोर्टर को सोर्स से खबर मिली थी....एडिटर की हरी झंडी मिली और खबर छप गई. घराने ने सबसे पहले काले कोट बालों को बुला भेजा...’.जलसा’ पर क़ानूनी किताबों का सालसा हुआ....संबिधान को भी खगाला गया.....तब जाकर नोटिस लिखा गया....अखबार के एडिटर और रिपोर्टर को लपेट लिया गया.....अखबार के दफ्तर पर क़ानूनी कार्यवाही की सूचना चस्पा कर दी गई...कि आपने एक कुलीन महिला के मातृत्व पर सवाल उठाया है और इसके लिए संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत अपराध सिद्ध होता है.

बेचारे ताकतवर-अरबपति! बच्चन घराने के साथ मीडिया समूह के मालिकों का पुराना रिश्ता रहा है सो उन्होंने व्यकिगत संबंधो के आधार पर मामले को निपटाने की कोशिश की. मरते क्या न करते, घराने के दरबार में फोन लगाया.... हाथाजोड़ी की. लेकिन बच्चन साहब न माने. धमका कर फोन पटक दिया.

लेकिन किस्सा यहीं ख़त्म नहीं हुआ....अब बच्चन साहब कोई मामूली आदमी तो हैं नहीं....एक घराने के मुखिया हैं! वो एक्टर ही नहीं सदी के महानायक हैं....प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तो छोड़ दीजिये....टीवी और अख़बारों में उनकी महानता का गुणगान राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी से भी ज्यादा होता है......महात्मा की जयंती और बरसी आती है तो टीवी में ३० सेकेंड का फूटेज चल जाता है और अख़बारों में एक फोटो के साथ दो लाइन. लेकिन बच्चन साहब के जन्मदिन पर तो, बकौल टीवी-अखबार: हर परिवार में जश्न मन रहा होता है.....राष्ट्रीय पर्व से भी ज्यादा ख़ुशी दिखाई जाती है......जैसे कि पूरा देश 'जलसा' के द्वार पर महानायक के दर्शन की प्रतीक्षा में खड़ा होता है......ऐसे में किसी मोहल्ले में मौत हो जाये तो पड़ोसियों को कन्धा देने का फुर्सत नहीं..... लेकिन ये बात भी अब पुरानी होने लगी है....अब तो बच्चन साहब फेमिली पैकेज मागने लगे हैं.....


यहाँ तक तो ठीक है.....लेकिन बच्चन तो ठहरे बच्चन..सो जनता के बीच पहुँच गए.....फिर जैन बंधुओं की हैसियत को सड़क पर ला पटका. अपने पिछलग्गू टीवी चैनल्स को टीआरपी की खुराक दी...बच्चन टीवी पर आये और 'अपराधी मीडिया समूह' को जमके धमकाया. राजनीती छोड़ दी हो पर राजनेता की तरह समझोता फार्मूला देने से भी नहीं चूंके. बच्चन साहब ने एलान क्या कि वो टाइम्स समूह के फिल्म फेयर पुरुस्कार समारोह में नहीं जायेंगे...वो खुद ही नहीं पत्नी-बेटा-बहुरानी भी नहीं जायेगे.....नाचेंगे-गायेंगे भी नहीं..... यानी आगे कि चार कुर्सियां खाली और पीछेवाली कुर्सी पर छोटे भैया-कुनबे सहित भी मौजूद नहीं होंगे........पूरी की पूरी पैकेज डील...
बच्चन साहब ने जैन बंधुओं(टाइम्स के मालिक) को ये भी याद दिलाया कि जब भी इस समूह को उनकी जरुरत हुई, वे हाज़िर हुए....लेकिन अब ये नहीं होगा. ये बात अलग है की बच्चन साहब के घराना स्थापित करने से पहले ही फिल्म फेयर की अपनी जागीर है......फिल्म फेयर के बेनर तले सैकड़ों फ़िल्मी हस्तियों के करियर को प्रमोसन मिला.....वो खुद भी उनमे से एक हैं.....अब स्टेज शो तो कोई मुफ्त में करता नहीं है....सो फिल्म फेयर को अपने प्रमोशन के लिए उनकी कितनी जरुरत होगी...ये आप फैसला कर लीजिये.

लेकिन बच्चन साहब तो ठहरे महा-मानव.....तो वो असलियत को क्यों माने......

कुछ वक़्त पहले भरतपुर में हमारे गुरूजी के अड्डे पर बहस भी छिड़ी कि अमिताभ बच्चन के खिलाफ कोई बोलने की हिम्मत क्यों नहीं करता......हालाँकि गुरूजी भी बेल्बोटम वाले अमिताभ के प्यार की जंजीर में जकडे रहे हैं.....फिर भी वो ये जानना चाहते हैं कि मीडिया से लेकर फ़िल्मी खिलाडियों तक - सभी अमिताभ से डरने क्यों लगे हैं............अचानक वो इस कदर ताकतवर कैसे हो गए?? उनके पॉवर प्ले का राज क्या है??

तो ये कोई एक दिन में खड़ा नहीं हुआ.....बच्चन परिवार से बच्चन घराने तक के सफ़र में राजनीती/सत्ता से कभी भी दूरी रही ही नहीं............माता-पिता की नेहरु से दोस्ती.....फिर इंदिरा गाँधी से पारिवारिक रिश्ता.....फिर अमिताभ-अजिताभ की राजीव-संजय गाँधी से भाईबंदी....फिर राजीव गाँधी के साथ संसद में अमिताभ का प्रवेश..... बोफोर्स से घायल होकर अमिताभजी का संसद को अलविदा....फिर घराने में 'समाजवाद' का प्रवेश....देवर अमर सिंह की रहनुमाई में जया बच्चन पहुच गईं संसद....फिर 'एश' जुडी घराने की बहु बनकर....यूँ ये बन गया बोलीबुड़ का सबसे बिकाऊ फॅमिली पैकेज!

टाइम्स के जैन भाई सोच रहे थे कि ये वही अपने विजय उर्फ़ अमिताभ बच्चन हैं.....मामला संभल जाएगा.....और न भी संभला तो अदालत में देख लेंगे....पर उन्हें महानायक के पोवार प्ले का अंदाज़ नहीं था...और उसी का खामियाजा भुगता भाइयों ने.

खैर बच्चन साहब नहीं गए फिल्म फेयर अवार्ड फग्सन में. पर अवार्ड तो दिए-लिए गए.....आगे की चार कुर्सियों पर नए लोगों को बैठने की जगह मिल गई. फिल्म फेयर समारोह में किसी को कोई कमी दिखाई नहीं दी. पिछले एक दशक में शायद पहली बार एसा हुआ कि किसी अवार्ड सेरेमनी में बच्चन फॅमिली पैकेज नहीं था. एक शगल सा बन गया था ये कि.....हर जगह बच्चन ही बच्चन....!!
अभी आप सोचेंगे हमने बेचारे बच्चन साहब को बदनाम करने का ठेका ले रखा है....तो प्लीस सच मानिये हमारी इतनी हैसियत नहीं कि हम आपके महानायक से दोस्ती या दुश्मनी कर सकें. हम तो सिर्फ महानायक के महाकाय स्वरुप को नजदीक से देखने भर की कोशिश कर रहे हैं...
सच कहें तो.....बच्चन साहब भले ही जैन बंधुओं की किरकिरी कर डाली हो.....एन अवार्ड समारोह के मौके पर सार्वजानिक माफ़ी मागने की मांग कर डाली हो.....जैन बंधुओं की कमजोर नब्ज पर हाथ डाल दिया हो..... लेकिन इस बार पासा खुद के लिए भी उल्टा ही रहा... उन्हें लगा कि टाइम्स ग्रुप अपनी गरज की खातिर मुहं में तिनका दबाये जलसा पर हाज़िर होकर हाथ जोड़ेगा....टाइम्स ऑफ़ इंडिया, मुंबई मिरर से लेकर टाइम्स नाओ पर माफीनामे की हेडलाइन होगी! यहाँ तक कि उनके सपने में भी आया हो कि फिल्म फेयर के स्टेज के बेकड्रॉप पर भी माफीनामा लिखा हो....! एसा हो न सका. यहाँ सवाल उसी नैतिकता का हो गया जिसकी दुहाई बच्चन साहब देते रहे हैं. जब साहब ने क़ानूनी जंग छेड़ ही दी....
एडिटर-रिपोर्टर को सजा दिलाने की मुहीम शुरू हो ही गई तो फिर व्यक्तिगत और सार्वजानिक रहा क्या.. माफ़ी मगवाने का ढोंग क्यों???????? अदालत में मुक़दमा लड़िये और अपराधियों को सजा दिलवाइए! पब्लिक से सहानुभूति क्यों मांग रहे है???? गलती मुंबई मिरर की तो फिर दुशमनी फिल्म फेयर से क्यों.....जैन परिवार को उलाहना किस बात का......... जब-जब उनके ग्रुप ने बुलाया तो नाचने-गाने का मेहनताना दिया.......अवार्ड देकर नाम बड़ा किया....फिर इस बयान के मायने क्या कि जब टाइम्स ग्रुप को जरुरत पड़ी तो बच्चन घराने ने साथ दिया!!
पर भाई...यही तो बच्चन घराने का पॉवर गेम है.....वक़्त-जरुरत के हिसाब से चाल चलो....जीत हमेशा अपने कब्जे में रखो. इसीलिए तो छोटे भैया के लिए इस कदर मुलायम हो गए कि सरेआम झूठ बोले: "यूपी में दम है क्योंकि जुर्म यहाँ कम है".... अब छोटे भैया असमाजवादी हो गए तो साहब ने मोदी का दामन थाम लिया----- गुजरात पर्यटन के ब्रांड एम्बेसडर बन गए...अपनी फिलम टेक्स फ्री करवा ली.....मोदी के साथ गलबहियां डाले उन्हें कोई शर्म भी नहीं आयी...क्योंकि भैया पैसा तो कमाना ही है... गाँधी से पट नहीं रही-मुलायम से 'छोटे' की खटपट हो गई तो अब मोदी का भगवा रंग ही सही!

बच्चन परिवार के बच्चन घराना बनाने पीछे यही पॉवर प्ले है.....जिसका मूल मंत्र है : "सत्ता-राजनीती से नजदीकी-किसी भी कीमत पर". सत्तानाशीनो से कैसा भेद! और जब अमिताभ मासूमियत से कहते हैं की "वो राजनीती नहीं कर सकते" ---तो लोग कहते हैं वह क्या बात है! लेकिन असल में यही तो बात है.....अमिताभ और उनके घराने से बेहतर राजनीती करना कोई जनता ही नहीं है. इसी के बल पर वो लोगो को डराते हैं. उनकी मासूमियत और ईमानदारी पर हम भरोसा करें भी तो कैसे? वो कलाकारी करने से बाज़ भी कहाँ आते हैं.

ऐसे खेल वो करते ही रहे हैं.... जमीन की खातिर किसान बन जाते हैं.....गरीब किसानो के हिस्से की जमीन औने-पौने दामों में हड़प ली. फिर अपनी बहु के नाम से कॉलेज बनाने की नीव रखी...सुर्खियाँ बटोरीं...अपनी महानता के किस्से गढ़वाए गए...और बच्चन साहब गायब हो गए..... कॉलेज बनाने का जिम्मा एक एनजीओ को दे दिया. यानि फर्जीवाडा करने से उनको कोई परहेज नहीं...

फिर भी हम उनसे चिपकते हैं...पूजा करते हैं....पीछे भागते हैं......लेकिन डरते नहीं! अरे भाई अमिताभ बच्चन से डरना जरुरी!!



वो तीन दशक से समझा रहे हैं.....................::

"मेरे दीवानों मुझे पहचानो"......अबे यार अब तो पहचान लो..........अबे सुनो न..ये क्या नायक-महानायक लगा रखा हैं..... मैं हूँ 'डान'!! तुमको मुझसे डरना होगा....तुमने सुना नहीं हमारी पत्नीश्री ने फिलम बनाई थी तुम सब को हमारी असलियत बताने के लिए... 'रिश्ते में हम तुम्हारे बाप लगते हैं लेकिन नाम है शहंशाह'!

लेकिन हम हैं कि................................!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

Friday, February 12, 2010

आओ प्यार की बात करें........................

आओ प्यार की बात करें........................
प्यार एक हसरत है
प्यार एक जियारत है
प्यार एक इवादत है
प्यार एक सदाव्रत है

आओ प्यार की बात करें........................
प्यार एक आस है
प्यार एक विश्वास है
प्यार एक सांस है
प्यार एक अहसास है

आओ प्यार की बात करें........................
प्यार एक श्रद्धा है
प्यार एक निष्ठा है
प्यार एक तपस्या है
प्यार एक रिश्ता है

आओ प्यार की बात करें........................
प्यार एक परिवेष है
प्यार एक निवेष है
प्यार एक विशेष है
प्यार एक संदेस है

Friday, January 29, 2010

जमाखोर की बात

अहसासों की जमाखोरी की ऐसे लत सी पड़ गई है.....................................

भंवरे की धुन पर इठलाने की जैसे आदत सी पड़ गई है.
पगडंडियों की भूलभुलैया से गुजर जाने हिम्मत सी बंध गई है.
रिश्तों को निभाने की जैसे रवायत सी बन गई है.
लम्हों को बीत जाने देने की जैसे रीत सी बन गई है.
मुस्कराने-खिलखिलाने की जैसे प्रवृति हो गई है.
ग़मों को छुपाने की जैसे प्रथा सी हो गई है.
सवालों से पहले जबाब खोजने की जैसे जरुरत सी हो गई है.
जिन्दगी के चलने की जैसे शगल सी हो गई है.

Saturday, January 23, 2010

पांच पंक्तियों की बातचीत

नजरिया कुछ बात करने को मजबूर कर रहा है............


"परिधि की हर त्रिज्या के पार
विकास के लक्ष्य अपरम्पार
विचार का हो ऐसा विस्तार
आसमां की गहराई में हो साकार
क्षितिज पर वो 'अव्यक्त' विचार-सार"

Saturday, January 16, 2010

बात 'जीवन-कला' की.....

एक हफ्ते से ज्यादा हो गया, रूबरू हुए.......बातें कुलबुला रही हैं.....कुछ कहना चाह रहीं हैं..मुझसे-आपसे..!! सोच रहा था की क्या कहूँ...क्या छोड़ दूँ... लेकिन इस द्विविधा का इलाज तो सालों पहले कबीरदास जी कर गए....
"बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताये" . तो मुझे भी मेरे गुरूजी ने राह दिखा दी....मिल गयी राह...मिल गई बात.
हुआ यूँ की ब्लॉग की पहली पोस्ट पढने के बाद गुरुद्वय ने (इसे "एको ब्रह्मा, द्वितीयो नास्ति" के अनुसरण में समझता हूँ .....क्योंकि गुरुपत्नी भी गुरु ही हैं मेरी....दोनों जैसे खुद के लिए एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं वैसे ही मेरे लिए भी)....अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट की....गुरूजी ने मुझे प्रेरक बनने की प्रेरणा दे डाली(मैं उन्हें गलत आंकलनकर्ता बताने का पाप कैसे कर सकता हूँ ......जो उनकी जिव्हा से निकल जाय वो ही सही), तो गुरुपत्नी ने अपने कान हमेशा के लिए मुझ पर न्योछावर कर दिए, ताकि मैं हमेशा उनसे बातें करता रहूँ. यूँ तो में पहले से ही दोनों के कानों का बेरोकटोक उपयोग-दुरपयोग करता रहा हूँ....आज भी वही हुआ...फ़ोन आया...दोनों के बीच फ़ोन झूलता रहा...बीच में उनकी बेटी से भी बात हो गई...बात करते करते 'जीवन की कला' पर आकर टिक गयी..यानी हमें अब बात इसी पर करनी है...

जीवन जीना वाकई में एक कला है??? ....सवाल एसा है जिस पर हजारों बार अकेले में मंथन करने की कोशिश कर चुका हूँ, सैकड़ों बार लम्बी चर्चाएँ सुन चुका हूँ....मंचासीन महागुरुओं से लेकर चाय की थडी वाले 'रोड-साइड दार्शनिकों' के प्रवचन ग्रहण कर चुका हूँ....सबके दावे हैं...खंडन-मंडन हैं...लेकिन अपने पल्ले कुछ खास नहीं पड़ा.....शायद 'समझदानी' छोटी पड़ गई होगी. ...खैर हमें तो बात करने से काम.... लाखों नहीं तो दो कान तो हम पर फ़िदा हैं ही.

देखिये भाई...जीवन का मतलब तो हमारे लिए जीना ही है...वो चाहे जीकर जियें या मरकर जियें! जीने का कोई तरीका भी होता है क्या? सवाल ये है...कि वो तरीका कहीं कला तो नहीं...लेकिन समस्या ये है की हम तो जीवन में कलाबाजियां खाना अच्छे से जानते हैं....अब हमारी वाली कला की बाजियों में और जीवन वाली कला में फर्क हो सकता है क्या? क्या वो बुनियादी सा डायलोग जिसे कोई भी अनपढ़, महान दार्शनिक की तरह कह डालता है " दुनिया एक रंगमंच है, और हम सब उसकी कठपुतलियां" .....यानि हम जो कलाबाजी खाते हैं वो कला तो है लेकिन उसे खेलने का फार्मूला हमें पता नहीं......डोर किसी के हाथ में है और हम बस ठुमकते रहते हैं....और एक दिन निकल लेते हैं.
ये बात करते करते अपने आस-पास नज़र घुमाकर देखा तो लगा नहीं, कि इस बुढिया-पुराण से कोई सहमत होगा..... चहरे शायद यही कह रहे हैं------जमाना बदल गया है...ये सिर्फ नाटक का डायलोग रह गया है......कला से बाजी हटा दी गई है......सभ्य समाज में एसा बोलेंगे तो बाजीगर न समझ लेगा हमें कोई....
तो भैया....हम तो फंस गए अपनी बातों में.....ये कला तो ठीक है....जीवन की कला वाकई में कोई रहस्यमय नुस्खा है...... चलो भाई जीवन के गणित की सबसे प्रमाणिक नुस्खो वाले ग्रन्थ "भगवद गीता" में कुछ टटोलते हैं.......
योगेश्वर कृष्ण को 64 कलाएं आती थी.....और वो भी उन्होंने 64 रातों में ही सीख कर निपटा दी.....लेकिन जीवन की कला तो उनमे भी किसी का नाम नहीं..... उनके स्वरुप में 16 कलाएं समाहित थी.....परमब्रह्म परमेश्वर का पूर्णावतार. वो कहते हैं की "मनुष्य तो सिर्फ कर्म किये जा, वाकी मै देख लूँगा". इससे भी बात नहीं बनी....और अर्जुन सवाल पर सवाल करते रहे तो आखिर उन्होंने तोड़ निकल ही दिया.....
"सर्वान पापान त्याज्येत मामेकं शरणम् ब्रज:
अहम् त्वाम सर्वपापेभ्यो मोक्ष्श्यामी मा शुच:" (हे अर्जुन! सभी पापों को त्यागकर मेरी शरण में आजा, में तुझे सभी पापों से मुक्ति देकर मोक्ष दे दूंगा.).......लेकिन भैया असल चीज जो इसमे छुपी है कि कर्म करना पड़ेगा .... और वो कर्म भी 'वही' करवाएंगे.....हमें तो बस करते जाना है....कोई सवाल नहीं....किसी जबाब की अपेक्षा नहीं......
अबे ये क्या हुआ.....कृष्णजी मेरे कम्पूटर के सामने आ बैठे हैं.....फंस गए, बुरी तरह से.......कहाँ जाए अब? शायद मेरी बातों से चिढ गए!
अंत नजदीक आ गया लगता हैं आज तो...... बड़े क्रोधित हैं लग रहे हैं.....सुदर्शन चक्र पूरी गति से दौड़ रहा हैं उनकी उंगली में....भागूं तो भी कहाँ तक.....शिशुपाल भी नहीं बच पाया था.....मैं कैसे बचूंगा!
....चलो देखते हैं....जो होगा सो होगा.....
कृष्ण उवाच: क्यों बे, बाते बनाए जा रहा है...मजाक उडा रहा है मेरा?
बुझता दीपक बहुत फडफडाता है....वही हालत हमने अपनी बना ली.....हिम्मत जुटाकर बोलना शुरू किया......: नहीं प्रभु, आप तो यूँ ही नाराज़ हो रहे हैं...मैं तो सिर्फ एक सवाल का जबाब खोज रहा था...इसीलिए आपके लिखाये "नोट्स" टटोलने लगा.
कृष्ण उवाच: तू बड़ा विद्वान है....आईआईएम से लेकर लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में हमारे ही नोट्स चल रहे हैं....सबको जबाब दे रहा हूँ....हजारों सालों से...और तू....मजे ले रहा है.....क्या जानना चाहता है बता?
प्रभु इतना डांट रहे हो तो, बताओ ज़रा ये "लिविंग आर्ट" या जीवन की कला क्या चीज है.....सिखाओ जरा....
कृष्ण उवाच: मैं हूँ न! जियो कहकर जियो.....कर्म करो...धर्म करो...और मोक्ष में दे दूंगा.....टेनशन क्यूँ ले रहा ही इतनी!
ये लो.....आप भी प्रभु कैसी बाते करते हो......जीवन की कला बताओ ......ये तो सब आपके नोट्स में पढ़ चुका हूँ....
कृष्ण उवाच: ( झल्लाकर)....अबे मूर्ख, तू खुद को क्या समझ रहा है.........एक मिनिट में नरक पहुँच दूंगा....पता है तुझे......थल-जल-नभ---सब मैं ही हूँ....पता नहीं क्या सडियल सी बात कर रहा है...."जीवन की कला". अब तेरे लिए नई चीज सीखूं क्या?
हमें लगा......नरक तो अब जाना ही है.......क्यों न इनको खरी खरी सुना ही दें.....मोडर्न दिव्य दर्शन करा ही दे......
स्वयं उवाच: हे भगवन, मेरी बात सुनो आप जरा ध्यान लगाकर.....आजकल आपके प्रवचन से लोग इतना सीख गए हैं कि, आपके कान काटने लगे हैं......आप तो कर्म-धर्म-मोक्ष की बात करके चल दिए..... पढ़े-लिखे सभ्य समाज में ये नहीं चलता.... यहाँ आपको "आर्ट" आनी चाहिए....."जीवन की कला".....मेरा मतलब जिए कैसे? ये बताना पड़ता है....वाकायदा सीखना पड़ता है.....आपके जैसे नहीं कि बस कर्म किये जा!
पहले पता होना चाहिए फलां कर्म को करने से किस तरह का, क्या मिलेगा.........
कृष्ण उवाच: अबे तू, तेरे पास तो यमराज को ही भेजना पड़ेगा......मेरी दयालुता का फायदा उठाकर, मुझे ज्ञान बाँट रहा है तू!
स्वयं उवाच: अब प्रभु आपको जो कहना है, कहो लेकिन ये मान लो कि दुनिया में नाम भले ही आपका चल रहा है....लेकिन आप अब ओल्ड फेशंड मान लिए गए हो......आपके श्लोकों से काम नहीं चलता..... इसमे फैशन का पुट डालना पड़ता है.....अपमार्केट प्रवचन देने पड़ते हैं.....ये चीजे सीखो फिर मुझसे बहस करो......आपसे अच्छे तो वो बापू ही हैं जो बासुरी ही नहीं बजाते.....नाचते ही नहीं हैं बल्कि हजारों के सामने अपने महिला भक्तों से कहते हैं......" आइ लव यू" ....आप तो राधा जी को भी नहीं कह पाए खुले-आम....ये हैं कलाएं .....आती है, आपको??
ओह ये तो निकल लिए.......मैं जीत गयाआआआआआआ! ......कृष्ण जी भाग खड़े हुए.....अरे महाराज, आपको तो भागना ही था.... वो पुराना कुरुक्षेत्र नहीं है अब ....तब कोई कम्पटीषन नहीं था आपके सामने! ये दुनिया अब बाज़ार है....ग्लोबल बाज़ार ....यहाँ आपको ही बेचा जा रहा हैं....लेकिन स्टाइल है साहब!
लेकिन ये क्या, कृष्ण जी को तो भगा दिया.....स्टाइल मार ली.....पर सवाल तो वहीँ की वहीं है......
सिविल सोसाइटी में जिन्दगी चलाने का का, वो 'फेंसी कानून' क्या है? .....यहाँ जिन्दगी यूँ ही नहीं चलती जाती है.... अरे भाई जीवन कैसे जियें-----कोई हमें बताये तो सही!

अब क्या करें भगवन नहीं तो पिता ही सही.......वो तो रहे नहीं लेकिन उनकी सीख-याद तो है........
हमने हमारे पिताजी, श्री बाबू लाल कौशिक जी से यही सुना-सीखा कि जीव तो राम भरोसे है...बस जिए चले जाओ...भाग्य के सहारे नहीं अपने बलबूते............यहाँ भी भ्रम- जब "वो" है तो "हम" कौन? पिताजी से पूछने की हिम्मत तो कभी हुई नहीं..सो खुद गजोधर की तरह सवाल-जवाब करके संतुष्ट होते रहे. उन्होंने जीकर दिखाया...उनके पास राम का भरोसा भी था और खुद का बूता भी. 72 की उम्र में चले गए...मेरे "जीवन प्रबंधन" से नाखुश थे...पर मुझसे खुश तो थे (हालाँकि उन्होंने कभी कहा नहीं क्योंकि वो बाप थे...) प्रबंधन शब्द का इस्तेमाल उनसे ही सुना था...शायद प्रबंधन ही जीवन जीने कला हो. क्योंकि न उनके दोनों हाथों में भाग्य बताने वाली लकीरें थी और न भारी भरकम डिग्रियां और न ही सत्ता में भागीदारी लायक पद! जितनी तनख्वा में मैंने नौकरी शुरू की ...वो उससे भी कम में रिटायर हो गए...फिर भी हम आठ भाई-बहिनों को जीने लायक बना गए....जीवन के हर हिस्से का...हर पहलू का 'फूलप्रूफ प्रबंध' कैसे किया----उनका राम जाने या उनका बूता...अब मैं राम को बड़ा मानू या बूते को? या फिर सबका तोड़ एक कि उनके प्रबंधन को 'कला' मान लूँ!! लेकिन ये आर्ट ऑफ़ लिविंग या जीने की कला की परिभाषा में फिट नहीं बैठता.....इसमे तो विज्ञान ही नहीं है.....कला ही नहीं है और यहाँ तक आधुनिकता के मुताबिक वाणिज्य भी नहीं! ये तो एसा लगा कि जैसे एकदम निरक्षर/अपढ़ जीवन दर्शन का मजाक उडाने की गुस्ताखी कर रहा हो. जो भी हो, बात ख़त्म नहीं होगी.........जारी रहेगी.

रात का तीसरा प्रहर बीतने को है.....इसी बीच एक मित्र से बात होने लगी.....हमने उसको भी शामिल कर लिया अपने साथ.....थोड़ी देर तो उसने झेला....फिर बोला देखो भाई,हम तो अब सोते हैं लेकिन तुम्हारे लिए ज्ञान की बात ये है कि जीवन कला का रहस्य खोलने के लिए ...कुछ गाँठ का लगाना पड़ता है....

"गाँठ" मतलब??????????? शायद वो मुहावरा जो अक्ल के लिए प्रयोग किया जाता है.....हम 'गाँठ' लेकर निकले तो पता चला कि हमें देखकर महान कला मर्मज्ञों का मूड ही उखड गया .....सुनने को और मिला, वही ठहरे गंवार कि गंवार.... ये लो....एक ही पल में 72 साला फार्मूला भी फेल! खुद को खूब गलियाये------जब 'समझदानी' पहले से ही छोटी है अपनी तो फिर अक्लदान बड़ा कैसे हो सकता है!----- पर हम ठहरे आधुनिक कला की परिभाषा के गंवार, तो मानते कैसे....."गांठ" का तोड़ निकालने में जुट गए...शायद वैसे ही जैसे "कालिदास" पेड़ की डाल पर कुल्हाड़ी चलाने व्यस्त रहते हैं...बिना ये सोचे कि वो भी उसी डाल पर बैठे हैं......
उत्तर नदारद....नारद को याद किया (नारायण को याद करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया अब)...और मेरे लिए फिर चमत्कार हो ही गया......

कि नारद प्रकट हो गए नारायण-नारायण पुकारते...! एक बार तो मैंने झूंठ समझा....सोचा कोई बहरूपिया बन आया है मेरा दोस्त....लेकिन नारद कहाँ मानने वाले थे...शुरू हो गए दे दना-दन...नारायण-नारायण-नारायण .......मैं वोला हे भक्त वत्सल ज्यादा शोर न करो.....वो तो कोपेन्होगन में हाल ही में बातचीत टूट गई वरना इतना ध्वनि प्रदुषण करने पर आपको जेल हो जाती!
नारद बोले:- ओये निपट गंवार! जेल कैसे हो जाती.....मैं तो विकासशील देश का नारद हूँ....अमरीका-यूरोप किस काम के हैं.....उनकी गांठ बहुत मोटी है... मैं अपना मुहं बंद करता तो बदले वो अपनी गांठ ढीली कर देते....... और ये कहकर, नारद चलते बने....शायद उन्हें भी मैं "अक्लबंद" ही लगा जीवन की कला में....

"गाँठ" की पहेली अभी कायम है...... यानि पृथ्वी पर ही नहीं छीरसागर में भी गाँठ प्रचलित चीज है....अब भैया हमारी अक्ल बंद ही सही, हम गाँठ को खोलकर ही मानेंगे....फिर लग गए धुन में.....इस बार बिना पाए विरक्ति की गुंजाईश नहीं है..... वैसे ही जैसे तुलसीदास अपनी पत्नी की धुन में साप को रस्सी समझ, छत पर चढ़ गए...एकदम उसी टाइप की धुन है अपनी. अब मेरी पत्नी "रत्नावली" तो है नहीं जो हमें गरियाकर कर रामधुन रटने को कहती! इस पूरे मिशन में यही एक पोसिटिव पॉइंट रहा!
नारदजी के मुताबिक गांठ ढीली हो सकती है.....इसका मतलब ये कसी भी होनी चाहिए. ......कसा हुआ ढीला होता है तो कुछ निकालता भी है....यानि एक चीज तो समझदानी में घुसी कि गांठ में वो नहीं होता जो हम मानते आ रहे थे....मान्यताएं बदल गई...शुरुआत स्वर्ग से ही हुई होगी...हमारे स्वर्ग से पृथ्वी पर होते हुए अमरीका-यूरोप तक चली गई(बाया नारदजी). यानि अब तक मैं खुद को गंवार माने बैठा था..पर मैं तो पिछड़ा भी निकला....गाँठ और भी महाकाय होती जा रही है मुझ फिस्सड्डी के लिए!

परेशान होकर मन विचलन अवस्था में प्रवेश कर गया...लगा कि इस आर्ट यानि कला के चक्कर में कंही जीवन जीना न भूल जाऊ. सोचा, चलो निकलते हैं इस कला जंगल से.....निकलने ही लगा कि "अटलजी" का वीर रस याद आ गया.....
"हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा. काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ....गीत नया गाता हूँ. "
ठीक है अटलजी, हारकर बैठ जाना हमें भी मंजूर नहीं है......हम भी ये गाँठ भेदकर मानेगे......जीवन कला का साकार रूप देखकर ही मानेगे.
हम फिर चल दिए गुरूजी की शरण में.....हालाँकि हमें पता है कि ये वो वाले गुरु नहीं जो स्वच्छ-धवल उच्चासन पर विराजकर "लव यू" बोले.....या फिर हजारों सितारों से एक ही सुर छिडवाने का चमत्कार कर सकते हों.....विदेशों में आश्रम भी नहीं हैं इनके पास....अरे वो तो छोडिये साहब एक अदद नौकरी भी नहीं जनाब के पास! 'बेरोजगार' हैं....श्री ललित मैगज़ीन! ये उनका नाम है....मनुष्य हैं बाकायदा! सपने देखते हैं....कभी तो इतना देखते हैं की बेड से उठते ही नहीं....जूते बांधे ...रजाई ओढ़े...डिकिन्सन की नोवल में आँखे गढ़ाए सपने देख लेते हैं.....और तो और 'डाइनिंग एंड वाईनिंग' भी इसी अवस्था में व्यवस्थित तौर पर हो जाती....उनके बायोडाटा में एसा कुछ नहीं है कि वो हमारे गुरु कहलाये....कईयों की नज़र में उन्होंने, 'पर्सोनालिटी डेवलपमेंट' के नाम पर शहर के कई होनहार लडके-लड़कियों को बिगाड़ दिया....क्लास लगवाकर गाने गवाते हैं....तालियाँ बजवाते हैं....पिकनिक पर ले जाते हैं......ड्रामा करवाते हैं....खुद को आजकल टीचर भी कहने लगे हैं....लेकिंग मजाल है कि कभी किसी को मन लगाकर पढ़ने के लिए कहा हो---ये एसा दावा है जिसका वो खुद भी खंडन नहीं कर सकते हैं.........पर क्या करें, ये शाश्वत सत्य है के वो हमारे गुरु हैं........ये उनकी कलाकारी है!!!
करीब डेढ़ दशक पहले 'बाजारू' हुआ करते थे....हमारा मतलब एक बड़े कॉरपोरेट हाउस में जनरल मेनेजर थे मार्केटिंग के. एक दिन सपना देखा बेरोजगार होने का और हो गए......महानगर से मेरे शहर में आ गए.......जहाँ वो आज तक नहीं है जिसके वो उस जमाने में आदी थे....
खैर उनकी पत्नी....डॉ. संतोष बकाया, हमारे यहाँ के सबसे बड़े युनिवेर्सिटीनुमा कालेज में सबसे पापुलर टीचर. और सच पूछो तो उनकी कलाकारी के पीछे असल जड़ वही है.......वही उन्हें ये सब करने की बेजा छूट दे देती हैं. ऐसे पति (पारम्परिक तौर पर हमारे यहाँ पति कमानेवाले, रोबदार, घर से लेकर रिश्तों तक पर बपौती जताने वाले माने जाते हैं ) के साथ वो ख़ुशी की किसी भी सीमा से ज्यादा खुश हैं....२० सालों में कभी किसी ने दोनों को टकराव के हालात में नहीं देखा....सच पूछो तो लोग उनके सुकून से चिढ़ते हैं.....ये असंभव सा लगता है....पर सच है....ये उन्हें किसी गुरु ने नहीं सिखाया....घर में ही सीखा....फिर अपने हिसाब से उस सीख में कुछ घटा-बढ़ा लिया....चकाचक चल गई जिन्दगी!
लेकिंग 'ब्रेकिंग बात' ये कि वो भी नहीं जानते कि लिविंग आर्ट क्या है? वो बस जीना जानते हैं......जीकर दिखा रहे हैं......

ठीक वैसे ही मेरे माता-पिता ने जीकर दिखाया....पिताजी के फलसफे की बात तो कर चुके है....माँ का भी जान लीजिये....कि वो कभी स्कूल नहीं गई....लेकिन उसके सभी बच्चे डिग्रीधारी हैं! स्कूल की शक्ल ही नहीं देखी तो कानून कैसे पढ़ती....लेकिन वो अपने पीहर-सुसुराल व रिश्तेदारों-पड़ोसियों की 'फेमिली वकील' टाइप लगती हैं......घर-परिवार की किसी समस्या का हल उसके टिप्स पर रहता है! गणित नहीं जानती लेकिन गिनकर बता सकती है कि फलां पडोसी या रिश्तेदार के बेटे-बेटी की शादी कब हुई....वो अपने बच्चों की जन्मतिथि भूल जाएँ, तो बस मेरी माँ ही एक आसरा है....वो ये भी गिनकर बता देती है कि मैं कितने दिन बाद घर वापस गया या मेरी पत्नी ने फोन करने में कितने दिन लगा दिए.....'अबूझ गणित' की मास्टरानी है मेरी माँ.....हर हाल में...हर मायने में सक्सेसफुल वाइफ-माँ-बहन-भाभी-ताई-नानी-दादी और सबसे ज्यादा 'इंसान '. अचरज की बात ये कि उसने भी किसी बाज़ार से सक्सेसफुल लाइफ के टिप्स नहीं खरीदे और न ही किसी गुरु ने जीवन कला सिखाई.

हमें लगता है कि आर्ट पर इतना मंथन कम नहीं है......नर-नारद-नारायण से लेकर मात-पिता-गुरु तक सबको खगाल लिया....हमें यही मिला कि, "बस जिंदगी जिए जा........ प्यारे", समर्पित भाव से.......इंसानियत को बाज़ार में मात बेच-खरीद....अगर लिविंग आर्ट कोई है तो वो जीने में ही समाहित है.......


Wednesday, January 6, 2010

जीवन की बात

चलिए तो बात शुरू करते हैं.........सालों से सोच रहा था की ब्लॉग लिखूंगा पर लगा की टीवी में रहते रहते लिखवाटीपन से कब के दूर हो चुके है....लिखने की हिम्मत नहीं हुई....फिर सोचा की बात तो कर ही सकते है....बात तो हमारे काम और जीवन दोनों का अकाट्य सच है....यूँ सिलसिला चल निकला है बात करने का.....आज की बात जिन्दगी पर ही करेंगे....क्योंकि में जी भर के जीना चाहता हूँ और बाते करना चाहता हूँ.....एकदम निपट, सपाट और साधारण !जिन्दगी से बेहतर बात क्या होगी......
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जिन्दगी का आनंद जीने में ही है! बिना बहाने के जियें.....एक बार जीना तो शुरू करें....भले ही बेमकसद ही सही....लक्ष्य के बिना भी..........लेकिन जियें, जी भर के जियें.....जिन्दगी की राह में सब कुछ मिलेगा.....ये पुष्ट करने या सिद्ध करने की जरुरत नहीं है...कोई उदहारण भी नहीं चलेगा....क्योकि जिन्दगी खुद ही जीनी है....एक बार दिल लगाकर जीकर तो देखें.

जीते जीते मकसद मिलेगा....फिर अचानक मंजिल नज़र आएगी और हमें पता भी नहीं चलेगा की कब लक्ष्य को छू कर आगे निकल गए....किसी तलाश में नहीं..... बल्कि, सिर्फ जिन्दगी की रों में जिंदादिल की तरह....स्वच्छ-धवल-तरल नदी की तरह जिन्दगी के बहाव में निकल जायेंगे.....खुश-मस्त हिलोरे मारते हुए .......हर मुकाम पर निकलती जाती मंजिलों को चूमते हुए,......निडर, बेखटके जीते चले जाओगे......बस एक बार जीकर तो देखें.....

उद्भव और अंत की चिंता से दूर......क्योंकि जब जीवन का बीज हमारे बस में नहीं तो नाश की सोचने की फुर्सत भी क्यों कर हैं? जीवन कभी युद्ध नहीं था....जीवन आज संघर्ष भी नहीं है.......जीवन कष्ट रहित है...... निष्कंटक है....हमें ना श्वांश की परवाह करनी है और ना धड़कन की.....मौत कब आएगी वो भी पता नहीं.....हमें तो बस जीना है....एक ही मंत्र है...."जीते रहो".
हम सभी वैरागी ही तो हैं.....फिर पता नहीं क्यों खुद को भोगी समझने के चक्कर में पड़ जाते है....जीना कोई भोग नहीं है...ये तो प्रकृति-पुरुष का योग है....हम जाने क्यों इससे वियोग पाल रहे है.....ख़ुशी से दूर भाग रहे है....कभी लगता है की जैसे दुःख में रत रहना हमारी मजबूरी हो गई है.....हर पल-हर छोटी बात के लिए युद्ध लड़ना ही हमने अपनी नियति मान ली है. गम से एसा नाता जोड़ा है कि मुस्कराना छोड़ दिया है.......सर्वे करने की जरुरत नहीं....अपने आस पास नज़र घुमाइए दूर तक शायद ही कोई मुस्कराता मिले.....
जबाब मुश्किल नहीं है....बस वही कि हमने जीना छोड़ दिया है तो मुस्करायेंगे क्या ख़ाक! तभी तो शायर को ये कहना पड़ा......
"या तो पागल-दीवाना हँसे, या जिसे तू तोफीक दे.
वरना इस दुनिया में आकर मुस्कराता कौन है. "
जीकर देखो प्यारे......पागलपन की हद तक जियो.....दीवाना बनकर हंसो.....हमारी जिन्दगी तो ख़ुशी से लबालब हो ही जायगी, साथ में दुनिया में ख़ुशी भर देंगे....कष्ट, चिंता, संकट, बाधा----ये सब बोने नज़र आयेंगे....जीवन संघर्ष का भाव बदल जायेगा......तो फिर हमारे लिए असफलता - सफलता में क्या फर्क रह जाएगा.....
मौत कभी डरावनी नहीं थी.....हम तो जिन्दगी से डरते है, क्योंकि दिल खोलके जीना जो नहीं आता. इसी चक्कर में मौत को भयाभय बना लिया है....जो उस सच को झुठलाने की कोशिश करते हैं....मौत के बाद कफ़न-दफ़न की तैयारी विकराल स्वरुप में होती है.....मुक्ति का तमाशा बना कर रख देते हैं हम.......और यूँ ही जिन्दगी तमाशा बन जाती है......