Saturday, January 16, 2010

बात 'जीवन-कला' की.....

एक हफ्ते से ज्यादा हो गया, रूबरू हुए.......बातें कुलबुला रही हैं.....कुछ कहना चाह रहीं हैं..मुझसे-आपसे..!! सोच रहा था की क्या कहूँ...क्या छोड़ दूँ... लेकिन इस द्विविधा का इलाज तो सालों पहले कबीरदास जी कर गए....
"बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताये" . तो मुझे भी मेरे गुरूजी ने राह दिखा दी....मिल गयी राह...मिल गई बात.
हुआ यूँ की ब्लॉग की पहली पोस्ट पढने के बाद गुरुद्वय ने (इसे "एको ब्रह्मा, द्वितीयो नास्ति" के अनुसरण में समझता हूँ .....क्योंकि गुरुपत्नी भी गुरु ही हैं मेरी....दोनों जैसे खुद के लिए एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं वैसे ही मेरे लिए भी)....अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट की....गुरूजी ने मुझे प्रेरक बनने की प्रेरणा दे डाली(मैं उन्हें गलत आंकलनकर्ता बताने का पाप कैसे कर सकता हूँ ......जो उनकी जिव्हा से निकल जाय वो ही सही), तो गुरुपत्नी ने अपने कान हमेशा के लिए मुझ पर न्योछावर कर दिए, ताकि मैं हमेशा उनसे बातें करता रहूँ. यूँ तो में पहले से ही दोनों के कानों का बेरोकटोक उपयोग-दुरपयोग करता रहा हूँ....आज भी वही हुआ...फ़ोन आया...दोनों के बीच फ़ोन झूलता रहा...बीच में उनकी बेटी से भी बात हो गई...बात करते करते 'जीवन की कला' पर आकर टिक गयी..यानी हमें अब बात इसी पर करनी है...

जीवन जीना वाकई में एक कला है??? ....सवाल एसा है जिस पर हजारों बार अकेले में मंथन करने की कोशिश कर चुका हूँ, सैकड़ों बार लम्बी चर्चाएँ सुन चुका हूँ....मंचासीन महागुरुओं से लेकर चाय की थडी वाले 'रोड-साइड दार्शनिकों' के प्रवचन ग्रहण कर चुका हूँ....सबके दावे हैं...खंडन-मंडन हैं...लेकिन अपने पल्ले कुछ खास नहीं पड़ा.....शायद 'समझदानी' छोटी पड़ गई होगी. ...खैर हमें तो बात करने से काम.... लाखों नहीं तो दो कान तो हम पर फ़िदा हैं ही.

देखिये भाई...जीवन का मतलब तो हमारे लिए जीना ही है...वो चाहे जीकर जियें या मरकर जियें! जीने का कोई तरीका भी होता है क्या? सवाल ये है...कि वो तरीका कहीं कला तो नहीं...लेकिन समस्या ये है की हम तो जीवन में कलाबाजियां खाना अच्छे से जानते हैं....अब हमारी वाली कला की बाजियों में और जीवन वाली कला में फर्क हो सकता है क्या? क्या वो बुनियादी सा डायलोग जिसे कोई भी अनपढ़, महान दार्शनिक की तरह कह डालता है " दुनिया एक रंगमंच है, और हम सब उसकी कठपुतलियां" .....यानि हम जो कलाबाजी खाते हैं वो कला तो है लेकिन उसे खेलने का फार्मूला हमें पता नहीं......डोर किसी के हाथ में है और हम बस ठुमकते रहते हैं....और एक दिन निकल लेते हैं.
ये बात करते करते अपने आस-पास नज़र घुमाकर देखा तो लगा नहीं, कि इस बुढिया-पुराण से कोई सहमत होगा..... चहरे शायद यही कह रहे हैं------जमाना बदल गया है...ये सिर्फ नाटक का डायलोग रह गया है......कला से बाजी हटा दी गई है......सभ्य समाज में एसा बोलेंगे तो बाजीगर न समझ लेगा हमें कोई....
तो भैया....हम तो फंस गए अपनी बातों में.....ये कला तो ठीक है....जीवन की कला वाकई में कोई रहस्यमय नुस्खा है...... चलो भाई जीवन के गणित की सबसे प्रमाणिक नुस्खो वाले ग्रन्थ "भगवद गीता" में कुछ टटोलते हैं.......
योगेश्वर कृष्ण को 64 कलाएं आती थी.....और वो भी उन्होंने 64 रातों में ही सीख कर निपटा दी.....लेकिन जीवन की कला तो उनमे भी किसी का नाम नहीं..... उनके स्वरुप में 16 कलाएं समाहित थी.....परमब्रह्म परमेश्वर का पूर्णावतार. वो कहते हैं की "मनुष्य तो सिर्फ कर्म किये जा, वाकी मै देख लूँगा". इससे भी बात नहीं बनी....और अर्जुन सवाल पर सवाल करते रहे तो आखिर उन्होंने तोड़ निकल ही दिया.....
"सर्वान पापान त्याज्येत मामेकं शरणम् ब्रज:
अहम् त्वाम सर्वपापेभ्यो मोक्ष्श्यामी मा शुच:" (हे अर्जुन! सभी पापों को त्यागकर मेरी शरण में आजा, में तुझे सभी पापों से मुक्ति देकर मोक्ष दे दूंगा.).......लेकिन भैया असल चीज जो इसमे छुपी है कि कर्म करना पड़ेगा .... और वो कर्म भी 'वही' करवाएंगे.....हमें तो बस करते जाना है....कोई सवाल नहीं....किसी जबाब की अपेक्षा नहीं......
अबे ये क्या हुआ.....कृष्णजी मेरे कम्पूटर के सामने आ बैठे हैं.....फंस गए, बुरी तरह से.......कहाँ जाए अब? शायद मेरी बातों से चिढ गए!
अंत नजदीक आ गया लगता हैं आज तो...... बड़े क्रोधित हैं लग रहे हैं.....सुदर्शन चक्र पूरी गति से दौड़ रहा हैं उनकी उंगली में....भागूं तो भी कहाँ तक.....शिशुपाल भी नहीं बच पाया था.....मैं कैसे बचूंगा!
....चलो देखते हैं....जो होगा सो होगा.....
कृष्ण उवाच: क्यों बे, बाते बनाए जा रहा है...मजाक उडा रहा है मेरा?
बुझता दीपक बहुत फडफडाता है....वही हालत हमने अपनी बना ली.....हिम्मत जुटाकर बोलना शुरू किया......: नहीं प्रभु, आप तो यूँ ही नाराज़ हो रहे हैं...मैं तो सिर्फ एक सवाल का जबाब खोज रहा था...इसीलिए आपके लिखाये "नोट्स" टटोलने लगा.
कृष्ण उवाच: तू बड़ा विद्वान है....आईआईएम से लेकर लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में हमारे ही नोट्स चल रहे हैं....सबको जबाब दे रहा हूँ....हजारों सालों से...और तू....मजे ले रहा है.....क्या जानना चाहता है बता?
प्रभु इतना डांट रहे हो तो, बताओ ज़रा ये "लिविंग आर्ट" या जीवन की कला क्या चीज है.....सिखाओ जरा....
कृष्ण उवाच: मैं हूँ न! जियो कहकर जियो.....कर्म करो...धर्म करो...और मोक्ष में दे दूंगा.....टेनशन क्यूँ ले रहा ही इतनी!
ये लो.....आप भी प्रभु कैसी बाते करते हो......जीवन की कला बताओ ......ये तो सब आपके नोट्स में पढ़ चुका हूँ....
कृष्ण उवाच: ( झल्लाकर)....अबे मूर्ख, तू खुद को क्या समझ रहा है.........एक मिनिट में नरक पहुँच दूंगा....पता है तुझे......थल-जल-नभ---सब मैं ही हूँ....पता नहीं क्या सडियल सी बात कर रहा है...."जीवन की कला". अब तेरे लिए नई चीज सीखूं क्या?
हमें लगा......नरक तो अब जाना ही है.......क्यों न इनको खरी खरी सुना ही दें.....मोडर्न दिव्य दर्शन करा ही दे......
स्वयं उवाच: हे भगवन, मेरी बात सुनो आप जरा ध्यान लगाकर.....आजकल आपके प्रवचन से लोग इतना सीख गए हैं कि, आपके कान काटने लगे हैं......आप तो कर्म-धर्म-मोक्ष की बात करके चल दिए..... पढ़े-लिखे सभ्य समाज में ये नहीं चलता.... यहाँ आपको "आर्ट" आनी चाहिए....."जीवन की कला".....मेरा मतलब जिए कैसे? ये बताना पड़ता है....वाकायदा सीखना पड़ता है.....आपके जैसे नहीं कि बस कर्म किये जा!
पहले पता होना चाहिए फलां कर्म को करने से किस तरह का, क्या मिलेगा.........
कृष्ण उवाच: अबे तू, तेरे पास तो यमराज को ही भेजना पड़ेगा......मेरी दयालुता का फायदा उठाकर, मुझे ज्ञान बाँट रहा है तू!
स्वयं उवाच: अब प्रभु आपको जो कहना है, कहो लेकिन ये मान लो कि दुनिया में नाम भले ही आपका चल रहा है....लेकिन आप अब ओल्ड फेशंड मान लिए गए हो......आपके श्लोकों से काम नहीं चलता..... इसमे फैशन का पुट डालना पड़ता है.....अपमार्केट प्रवचन देने पड़ते हैं.....ये चीजे सीखो फिर मुझसे बहस करो......आपसे अच्छे तो वो बापू ही हैं जो बासुरी ही नहीं बजाते.....नाचते ही नहीं हैं बल्कि हजारों के सामने अपने महिला भक्तों से कहते हैं......" आइ लव यू" ....आप तो राधा जी को भी नहीं कह पाए खुले-आम....ये हैं कलाएं .....आती है, आपको??
ओह ये तो निकल लिए.......मैं जीत गयाआआआआआआ! ......कृष्ण जी भाग खड़े हुए.....अरे महाराज, आपको तो भागना ही था.... वो पुराना कुरुक्षेत्र नहीं है अब ....तब कोई कम्पटीषन नहीं था आपके सामने! ये दुनिया अब बाज़ार है....ग्लोबल बाज़ार ....यहाँ आपको ही बेचा जा रहा हैं....लेकिन स्टाइल है साहब!
लेकिन ये क्या, कृष्ण जी को तो भगा दिया.....स्टाइल मार ली.....पर सवाल तो वहीँ की वहीं है......
सिविल सोसाइटी में जिन्दगी चलाने का का, वो 'फेंसी कानून' क्या है? .....यहाँ जिन्दगी यूँ ही नहीं चलती जाती है.... अरे भाई जीवन कैसे जियें-----कोई हमें बताये तो सही!

अब क्या करें भगवन नहीं तो पिता ही सही.......वो तो रहे नहीं लेकिन उनकी सीख-याद तो है........
हमने हमारे पिताजी, श्री बाबू लाल कौशिक जी से यही सुना-सीखा कि जीव तो राम भरोसे है...बस जिए चले जाओ...भाग्य के सहारे नहीं अपने बलबूते............यहाँ भी भ्रम- जब "वो" है तो "हम" कौन? पिताजी से पूछने की हिम्मत तो कभी हुई नहीं..सो खुद गजोधर की तरह सवाल-जवाब करके संतुष्ट होते रहे. उन्होंने जीकर दिखाया...उनके पास राम का भरोसा भी था और खुद का बूता भी. 72 की उम्र में चले गए...मेरे "जीवन प्रबंधन" से नाखुश थे...पर मुझसे खुश तो थे (हालाँकि उन्होंने कभी कहा नहीं क्योंकि वो बाप थे...) प्रबंधन शब्द का इस्तेमाल उनसे ही सुना था...शायद प्रबंधन ही जीवन जीने कला हो. क्योंकि न उनके दोनों हाथों में भाग्य बताने वाली लकीरें थी और न भारी भरकम डिग्रियां और न ही सत्ता में भागीदारी लायक पद! जितनी तनख्वा में मैंने नौकरी शुरू की ...वो उससे भी कम में रिटायर हो गए...फिर भी हम आठ भाई-बहिनों को जीने लायक बना गए....जीवन के हर हिस्से का...हर पहलू का 'फूलप्रूफ प्रबंध' कैसे किया----उनका राम जाने या उनका बूता...अब मैं राम को बड़ा मानू या बूते को? या फिर सबका तोड़ एक कि उनके प्रबंधन को 'कला' मान लूँ!! लेकिन ये आर्ट ऑफ़ लिविंग या जीने की कला की परिभाषा में फिट नहीं बैठता.....इसमे तो विज्ञान ही नहीं है.....कला ही नहीं है और यहाँ तक आधुनिकता के मुताबिक वाणिज्य भी नहीं! ये तो एसा लगा कि जैसे एकदम निरक्षर/अपढ़ जीवन दर्शन का मजाक उडाने की गुस्ताखी कर रहा हो. जो भी हो, बात ख़त्म नहीं होगी.........जारी रहेगी.

रात का तीसरा प्रहर बीतने को है.....इसी बीच एक मित्र से बात होने लगी.....हमने उसको भी शामिल कर लिया अपने साथ.....थोड़ी देर तो उसने झेला....फिर बोला देखो भाई,हम तो अब सोते हैं लेकिन तुम्हारे लिए ज्ञान की बात ये है कि जीवन कला का रहस्य खोलने के लिए ...कुछ गाँठ का लगाना पड़ता है....

"गाँठ" मतलब??????????? शायद वो मुहावरा जो अक्ल के लिए प्रयोग किया जाता है.....हम 'गाँठ' लेकर निकले तो पता चला कि हमें देखकर महान कला मर्मज्ञों का मूड ही उखड गया .....सुनने को और मिला, वही ठहरे गंवार कि गंवार.... ये लो....एक ही पल में 72 साला फार्मूला भी फेल! खुद को खूब गलियाये------जब 'समझदानी' पहले से ही छोटी है अपनी तो फिर अक्लदान बड़ा कैसे हो सकता है!----- पर हम ठहरे आधुनिक कला की परिभाषा के गंवार, तो मानते कैसे....."गांठ" का तोड़ निकालने में जुट गए...शायद वैसे ही जैसे "कालिदास" पेड़ की डाल पर कुल्हाड़ी चलाने व्यस्त रहते हैं...बिना ये सोचे कि वो भी उसी डाल पर बैठे हैं......
उत्तर नदारद....नारद को याद किया (नारायण को याद करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया अब)...और मेरे लिए फिर चमत्कार हो ही गया......

कि नारद प्रकट हो गए नारायण-नारायण पुकारते...! एक बार तो मैंने झूंठ समझा....सोचा कोई बहरूपिया बन आया है मेरा दोस्त....लेकिन नारद कहाँ मानने वाले थे...शुरू हो गए दे दना-दन...नारायण-नारायण-नारायण .......मैं वोला हे भक्त वत्सल ज्यादा शोर न करो.....वो तो कोपेन्होगन में हाल ही में बातचीत टूट गई वरना इतना ध्वनि प्रदुषण करने पर आपको जेल हो जाती!
नारद बोले:- ओये निपट गंवार! जेल कैसे हो जाती.....मैं तो विकासशील देश का नारद हूँ....अमरीका-यूरोप किस काम के हैं.....उनकी गांठ बहुत मोटी है... मैं अपना मुहं बंद करता तो बदले वो अपनी गांठ ढीली कर देते....... और ये कहकर, नारद चलते बने....शायद उन्हें भी मैं "अक्लबंद" ही लगा जीवन की कला में....

"गाँठ" की पहेली अभी कायम है...... यानि पृथ्वी पर ही नहीं छीरसागर में भी गाँठ प्रचलित चीज है....अब भैया हमारी अक्ल बंद ही सही, हम गाँठ को खोलकर ही मानेंगे....फिर लग गए धुन में.....इस बार बिना पाए विरक्ति की गुंजाईश नहीं है..... वैसे ही जैसे तुलसीदास अपनी पत्नी की धुन में साप को रस्सी समझ, छत पर चढ़ गए...एकदम उसी टाइप की धुन है अपनी. अब मेरी पत्नी "रत्नावली" तो है नहीं जो हमें गरियाकर कर रामधुन रटने को कहती! इस पूरे मिशन में यही एक पोसिटिव पॉइंट रहा!
नारदजी के मुताबिक गांठ ढीली हो सकती है.....इसका मतलब ये कसी भी होनी चाहिए. ......कसा हुआ ढीला होता है तो कुछ निकालता भी है....यानि एक चीज तो समझदानी में घुसी कि गांठ में वो नहीं होता जो हम मानते आ रहे थे....मान्यताएं बदल गई...शुरुआत स्वर्ग से ही हुई होगी...हमारे स्वर्ग से पृथ्वी पर होते हुए अमरीका-यूरोप तक चली गई(बाया नारदजी). यानि अब तक मैं खुद को गंवार माने बैठा था..पर मैं तो पिछड़ा भी निकला....गाँठ और भी महाकाय होती जा रही है मुझ फिस्सड्डी के लिए!

परेशान होकर मन विचलन अवस्था में प्रवेश कर गया...लगा कि इस आर्ट यानि कला के चक्कर में कंही जीवन जीना न भूल जाऊ. सोचा, चलो निकलते हैं इस कला जंगल से.....निकलने ही लगा कि "अटलजी" का वीर रस याद आ गया.....
"हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा. काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ....गीत नया गाता हूँ. "
ठीक है अटलजी, हारकर बैठ जाना हमें भी मंजूर नहीं है......हम भी ये गाँठ भेदकर मानेगे......जीवन कला का साकार रूप देखकर ही मानेगे.
हम फिर चल दिए गुरूजी की शरण में.....हालाँकि हमें पता है कि ये वो वाले गुरु नहीं जो स्वच्छ-धवल उच्चासन पर विराजकर "लव यू" बोले.....या फिर हजारों सितारों से एक ही सुर छिडवाने का चमत्कार कर सकते हों.....विदेशों में आश्रम भी नहीं हैं इनके पास....अरे वो तो छोडिये साहब एक अदद नौकरी भी नहीं जनाब के पास! 'बेरोजगार' हैं....श्री ललित मैगज़ीन! ये उनका नाम है....मनुष्य हैं बाकायदा! सपने देखते हैं....कभी तो इतना देखते हैं की बेड से उठते ही नहीं....जूते बांधे ...रजाई ओढ़े...डिकिन्सन की नोवल में आँखे गढ़ाए सपने देख लेते हैं.....और तो और 'डाइनिंग एंड वाईनिंग' भी इसी अवस्था में व्यवस्थित तौर पर हो जाती....उनके बायोडाटा में एसा कुछ नहीं है कि वो हमारे गुरु कहलाये....कईयों की नज़र में उन्होंने, 'पर्सोनालिटी डेवलपमेंट' के नाम पर शहर के कई होनहार लडके-लड़कियों को बिगाड़ दिया....क्लास लगवाकर गाने गवाते हैं....तालियाँ बजवाते हैं....पिकनिक पर ले जाते हैं......ड्रामा करवाते हैं....खुद को आजकल टीचर भी कहने लगे हैं....लेकिंग मजाल है कि कभी किसी को मन लगाकर पढ़ने के लिए कहा हो---ये एसा दावा है जिसका वो खुद भी खंडन नहीं कर सकते हैं.........पर क्या करें, ये शाश्वत सत्य है के वो हमारे गुरु हैं........ये उनकी कलाकारी है!!!
करीब डेढ़ दशक पहले 'बाजारू' हुआ करते थे....हमारा मतलब एक बड़े कॉरपोरेट हाउस में जनरल मेनेजर थे मार्केटिंग के. एक दिन सपना देखा बेरोजगार होने का और हो गए......महानगर से मेरे शहर में आ गए.......जहाँ वो आज तक नहीं है जिसके वो उस जमाने में आदी थे....
खैर उनकी पत्नी....डॉ. संतोष बकाया, हमारे यहाँ के सबसे बड़े युनिवेर्सिटीनुमा कालेज में सबसे पापुलर टीचर. और सच पूछो तो उनकी कलाकारी के पीछे असल जड़ वही है.......वही उन्हें ये सब करने की बेजा छूट दे देती हैं. ऐसे पति (पारम्परिक तौर पर हमारे यहाँ पति कमानेवाले, रोबदार, घर से लेकर रिश्तों तक पर बपौती जताने वाले माने जाते हैं ) के साथ वो ख़ुशी की किसी भी सीमा से ज्यादा खुश हैं....२० सालों में कभी किसी ने दोनों को टकराव के हालात में नहीं देखा....सच पूछो तो लोग उनके सुकून से चिढ़ते हैं.....ये असंभव सा लगता है....पर सच है....ये उन्हें किसी गुरु ने नहीं सिखाया....घर में ही सीखा....फिर अपने हिसाब से उस सीख में कुछ घटा-बढ़ा लिया....चकाचक चल गई जिन्दगी!
लेकिंग 'ब्रेकिंग बात' ये कि वो भी नहीं जानते कि लिविंग आर्ट क्या है? वो बस जीना जानते हैं......जीकर दिखा रहे हैं......

ठीक वैसे ही मेरे माता-पिता ने जीकर दिखाया....पिताजी के फलसफे की बात तो कर चुके है....माँ का भी जान लीजिये....कि वो कभी स्कूल नहीं गई....लेकिन उसके सभी बच्चे डिग्रीधारी हैं! स्कूल की शक्ल ही नहीं देखी तो कानून कैसे पढ़ती....लेकिन वो अपने पीहर-सुसुराल व रिश्तेदारों-पड़ोसियों की 'फेमिली वकील' टाइप लगती हैं......घर-परिवार की किसी समस्या का हल उसके टिप्स पर रहता है! गणित नहीं जानती लेकिन गिनकर बता सकती है कि फलां पडोसी या रिश्तेदार के बेटे-बेटी की शादी कब हुई....वो अपने बच्चों की जन्मतिथि भूल जाएँ, तो बस मेरी माँ ही एक आसरा है....वो ये भी गिनकर बता देती है कि मैं कितने दिन बाद घर वापस गया या मेरी पत्नी ने फोन करने में कितने दिन लगा दिए.....'अबूझ गणित' की मास्टरानी है मेरी माँ.....हर हाल में...हर मायने में सक्सेसफुल वाइफ-माँ-बहन-भाभी-ताई-नानी-दादी और सबसे ज्यादा 'इंसान '. अचरज की बात ये कि उसने भी किसी बाज़ार से सक्सेसफुल लाइफ के टिप्स नहीं खरीदे और न ही किसी गुरु ने जीवन कला सिखाई.

हमें लगता है कि आर्ट पर इतना मंथन कम नहीं है......नर-नारद-नारायण से लेकर मात-पिता-गुरु तक सबको खगाल लिया....हमें यही मिला कि, "बस जिंदगी जिए जा........ प्यारे", समर्पित भाव से.......इंसानियत को बाज़ार में मात बेच-खरीद....अगर लिविंग आर्ट कोई है तो वो जीने में ही समाहित है.......


1 comment:

  1. It was really awesome the way you have operated this word Art of living i ll suggest Mr.Pritish nandy might have got another sight here as he recently blogged about The art of living. you have tried to define it in every possible conventional way and how it was unanswered whenever we contact some idealized figures of humankind. may be here i can find a small concept of Stephen hawkins, as i too believe in the supremacy of nature. how much we try to solve the mysterious nature it brings another complex to solve , being human we can't deny challenges and we carry on. nature rules human mind and you are bounded to do innate things because nature brings them as system software in a human mind. if you feel hunger you eat, you feel cold you need woolen clothes. one thing which makes me away from super natural faith is that we think of controlling natural requirements. it never means loose the control and give yourself to nature to drive crazy. nature has a great degree of discipline. it tells everyone giving some circumstances how to learn the art of living. this happened same in all your given examples. one thing i would even if some supernatural power exists it should be closer to nature than us because that is primitive and stable and its controller knows how to control the system so we have all the possible resources to nurture our life art.
    Nice piece of writing , keep it up.

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